विश्वामित्र जी का वंश

 रेणु ऋषिकी कन्या थी रेणुका। जमदग्निने उसका पाणिग्रहण किया ⁠।⁠।⁠१२⁠।⁠। रेणुकाके गर्भसे जमदग्नि ऋषिके वसुमान् आदि कई पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे परशुरामजी थे। उनका यश सारे संसारमें प्रसिद्ध है ⁠।⁠।⁠१३⁠।⁠। कहते हैं कि हैहयवंशका अन्त करनेके लिये स्वयं भगवान्‌ने ही परशुरामके रूपमें अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠। यद्यपि क्षत्रियोंने उनका थोड़ा-सा ही अपराध किया था—फिर भी वे लोग बड़े दुष्ट, ब्राह्मणोंके अभक्त, रजोगुणी और विशेष करके तमोगुणी हो रहे थे। यही कारण था कि वे पृथ्वीके भार हो गये थे और इसीके फलस्वरूप भगवान् परशुरामने उनका नाश करके पृथ्वीका भार उतार दिया ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠

जमदग्नि मुनिने अपनी पत्नीका मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा—‘मेरे पुत्रो! इस पापिनीको मार डालो।’ परन्तु उनके किसी भी पुत्रने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠। इसके बाद पिताकी आज्ञासे परशुरामजीने माताके साथ सब भाइयोंको भी मार डाला। इसका कारण था। वे अपने पिताजीके योग और तपस्याका प्रभाव भलीभाँति जानते थे ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠।


परशुरामकी माता रेणुका बड़ी दीनतासे उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परन्तु उन सबोंने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्निका सिर काटकर ले गये। परीक्षित्! वास्तवमें वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे ⁠।⁠।⁠१२⁠।⁠। सती रेणुका दुःख और शोकसे आतुर हो गयीं। वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोरसे रोने लगीं—‘परशुराम! बेटा परशुराम! शीघ्र आओ’ ⁠।⁠।⁠१३⁠।⁠। परशुरामजीने बहुत दूरसे माताका ‘हा राम!’ यह करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रतासे आश्रमपर आये और वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠। परीक्षित्! उस समय परशुरामजीको बड़ा दुःख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोकके वेगसे वे अत्यन्त मोहित हो गये। ‘हाय पिताजी! आप तो बड़े महात्मा थे। पिताजी! आप तो धर्मके सच्चे पुजारी थे। आप हमलोगोंको छोड़कर स्वर्ग चले गये’ ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠। इस प्रकार विलापकर उन्होंने पिताका शरीर तो भाइयोंको सौंप दिया और स्वयं हाथमें फरसा उठाकर क्षत्रियोंका संहार कर डालनेका निश्चय किया ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠।


भगवान्‌ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये राजन्! उन्होंने अपने पिताके वधको निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्रके समन्तपंचकमें ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो रक्तके जलसे भरे हुए थे ⁠।⁠।⁠१८-१९⁠।⁠। परशुरामजीने अपने पिताजीका सिर लाकर उनके धड़से जोड़ दिया और यज्ञोंद्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान्‌का यजन किया ⁠।⁠।⁠२०⁠।⁠। यज्ञोंमें उन्होंने पूर्व दिशा होताको, दक्षिण दिशा ब्रह्माको, पश्चिम दिशा अध्वर्युको और उत्तर दिशा सामगान करनेवाले उद्‌गाताको दे दी ⁠।⁠।⁠२१⁠।⁠। इसी प्रकार अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजोंको दीं, कश्यपजीको मध्यभूमि दी, उपद्रष्टाको आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्योंको अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं ⁠।⁠।⁠२२⁠।⁠। इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापोंसे मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वतीके तटपर मेघरहित सूर्यके समान शोभायमान हुए ⁠।⁠।⁠२३⁠।⁠। महर्षि जमदग्निको स्मृतिरूप संकल्पमय शरीरकी प्राप्ति हो गयी। परशुरामजीसे सम्मानित होकर वे सप्तर्षियोंके मण्डलमें सातवें ऋषि हो गये ⁠।⁠।⁠२४⁠।⁠।

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